पटकथा पृष्ठभूमि:-
संक्षिया वर्णित उपाख्यान, त्रयकथा "बारह सौ दिव्या वर्ष कलियुग के" उपन्यास अवतरण भाग-०२ "स्वर्ग एक युद्ध-क्षेत्र" की भूमिगत व पटपथलिय संरचनात्मकता प्रथम भाग के, अंत के सिरे को, जोड़ते हुए, उदय की ओर को अग्रेषित होती है, कथकिय भावांतर में, यह त्रयकथा अपने पहले प्रति के, प्रमुख उन्नायक पात्र "कालगा" जोकि, पैशाचिक देव शक्ति-लोकिय स्वामित्व प्रदान चरित्र के, इर्द-गिर्द घूमती हुई, कलियुग आरम्भ के, पांच हजार वर्ष पूर्वोत्तर से आरम्भ होती हुई, कलियुग के प्रथम चरण के, अग्रिम के इक्कीस सौ वर्षों की, सामायिक सीमा रेखा को छूती है, जिसमे पुन्डाहो साम्राज्य सभ्यता की, अन्तोदय तक के, पहलुवों का जिक्र करती हुई, उस रहश्यमयी खजाने का, धरती के गर्त पाताल में, समापन तक की, घटना का उल्लेख, त्रयकथा "बारह सौ दिव्या वर्ष कलियुग के" प्रथम प्रति "कालगा-पिशाचों के देव" में, क्रमिक वर्णन किया गया है।
त्रयकथा द्वितीय प्रति "स्वर्ग एक युद्ध-क्षेत्र" अपने प्राथमिक क्रमिक घटनाओं, को सुनियोजित करते हुई, एक हजार दैव्य वर्ष के, सफर को तय करती है, जोकी इंसानी, गणमानक संख्या तीन लाख, साठ हजार वर्ष के, बराबर है, कथाचक्र कालगा के, इंसानी धरती से, अग्रेषित होकर कोटिक-योजन की, दूरी पर 'रदिवर्तम' नक्षत्र स्थित पिंड 'स्वर्ग' व् 'वैकुण्ठ' के द्वार तक जा पहुंची, जहाँ तारुम ग्रहीय पैशाच व धरती वाशियों समेत, अन्यत्र कई दूसरे नक्षत्र स्थित, ग्रहीय सभ्यताओं ने, मिलकर देव सभ्यताओं से, युद्ध अट्टहास करते है, तथा कृति की समाप्ति देवताओं व कालगा समेत कई, अन्यत्र सभ्यताओं के मुखियागणों के, संधि-प्रस्ताव पारित होने की, दशा पर, समाप्त हो जाती है, जहां कालगा एक गुलामी के, बेणी से आजाद भी, नहीं हुआ था की, उसे देवताओ का, युगो-युगांतर तक का गुलाम बना दिया जाता है।
..जबकि कथानक अवतरण का, अंतिम व भाग तृतीया "देवों की अमरता का रहश्य" में, बिगत कड़ियों को क्रमबद्ध करते हुए, देवताओं क़े, दो सौ पचास वर्ष तक का, कथकिय अवतरण को, पूरा करता है, जिसमे देवताओं क़े अमर होने क़े कई तथ्य उजागर किये गए है, तथा धरती वाशियों में उनमे सम्बन्ध अश्थापित होने के कई उद्धेश्य का जिक्र भी मिलता है।